सोमवार, 10 अगस्त 2015

कितने अजीब है ये रिश्ते

जब हमें जीवन मिलता है ... रिश्तों में बंधने का सिलसिला शुरू होता है। मां मिलती है पिता मिलते हैं...भाई और बहन भी। हम किसी न किसी से रिशतों में बंधे ही रहते हैं। और बड़े होते हैं..तो दोस्त भी मिलते हैं, पर दोस्ती का रिश्ता थोड़ा अलग होता है, क्योंकि दोस्त हमें विरासत में नहीं मिलते..हम उन्हें खुद चुनते हैं..और ये विरासत के रिश्ते जो हमें मिलते हैं बड़े ही अजीब होते हैं...

       मां और पिता तो दो अलग अलग जगह से आए.. और जन्म दिये दो रिश्ते.. बेटा बेटी..
पर ये लोग जो एक ही कोख से जन्मे..उन्होंने कितने रिशते बना लिए...भाई-बहन, भाई-भाई, बहन-बहन
गहराई से सोचो तो लगता है कि ये रिशते तो स्वयं ईश्वर ने ही बनाए हैं...शायद यही वो अनमोल तोहफ़ा है जो ईश्वर ने सिर्फ हमें दिया है..जिसके बारे में हमें पता नहीं होता..जिसे हमने खुद नहीं चुना। जैसे हम अपने माता -पिता को नहीं चुनते ठीक वैसे ही अपने भाई और बहनों को भी..ये काम तो स्वयं ईश्वर करते हैं।


        पर सोचा है बाद में क्या होता है..इन बहन और भाइयों के साथ अपना आधा जीवन बिताने के बाद
हम अपने जीवन की नई शुरुआत करते हैं। एक साथी ढ़ूढते हैं...शादी करते हैं और एक नये व्यक्ति के साथ जीना शुरू करते है.. अपने छोटे से संसार में खुश रहने लगते हैं। हमारे भाई और बहन..वो भी अपना-अपना जीवन कुछ ऐसे ही बिताते हैं, कोई जल्दी तो कोई देर से..अब सबके पास अपने अपने साथी हैं...खुद चुने हुए या फिर मां बाप के द्वारा चुने गए। सब अपना-अपना जीवन ऐेसे ही बिताते हैं, सबके अपने अलग-अलग, छोटे-छोटे संसार।

        अब फिर सिलसिला चलता है नये रिश्तों के जन्म लेने का..कुछ नन्हे नन्हे रिश्ते आते हैं और किसी को बुआ,ताउ, किसी को चाचा,  मौसी ..मामा बनाते हैं। जीवन चक्र ऐसा ही है..सुन्दर..बहुत सुन्दर, पर कहीं न कहीं वो तोहफ़े पीछे ही छूट जाते हैं...हमें पता ही नहीं चलता कि कब नये रिशते मज़बूत हो गए और कब उन अनमोल रिशतों की डोर ढ़ीली हो गई। याद ही नहीं आता कि कब हमने अपनी मां का आंचल छोड़ दिया..कब
अपने पिता के साथ आखिरी बार अपने मन की बात कही..कब अपनी बहन के साथ खिलखिलाये और प्यार से कब से नहीं पूछा कि 'तू कैसी है', कब आखिरी बार अपने भाई के गले लगे थे..याद ही नहीं आता। माता पिता तो फिर भी हमारा संबल बने रहते हैं...लेकिन वो छोटे और बड़े तोहफ़े...उनकी चमक तो धुंधला ही जाती है। आज कुछ रिश्ते रियल और कज़िन..फर्स्ट कज़िन..सैकण्ड कज़िन के नाम से जाने जाते हैं। कितने अजीब हैं न ये रिशते ... अंदाजा लगाएं कि दो सगे भाइयों के बच्चे कभी भी सगे नहीं कहलाये जाते..तो प्यार भी तो वैसा नहीं होगा जो उनके पिता के बीच था... ख़़ैर।
       आज हम अहसास भी करते हैं तो ये कहकर अपने दिल को समझा लेते हैं कि वो अपने संसार में खुश हैं और हम अपने। फिर कभी अपने ही भाई-बहनों की छोटी-छोटी बातें हम अपने मन पर इस कदर लेते हैं कि उनके साथ बिताया बचपन, वो प्यार भरे पल भी याद नहीं आते। क्योंकि सच्चाई तो यही है कि हम हमेशा बुरी बातें ही याद रखते हैं और अच्छी बातें भूल जाते हैं। अब नतीजा तो यही आता है कि सब अपने-अपने में मस्त हैं..किसी को किसी से क्या...कभी कुछ बातें दूरियां बढ़ा देती हैं और कभी-कभी दूरियां ही इतनी ज़्यादा होती हैं कि वो बढ़ती जाती हैं..जब तक की कोई सार्थक प्रयास न किया जाये। हांलाकि हमारे त्यौहार एक हद तक पूरी कोशिश करते हैं इन रिश्तों को मज़बूती देने की। पर आजकल तो राखी भी भाई-बहन के मिले बिना  ही मन जाती हैं..व्यस्तताएं ज़्यादा हैं...ख़ैर
       पाश्चात्य संसकृति कितनी ही हावी हो जाये पर क्या हम अपने संस्कार भूल सकते हैं? शायद नहीं, फिर क्यों हम इन रिश्तों की कद्र नहीं कर पाते ...अरे ये रिश्ते नहीं हैं ...तोहफ़े हैं..जो हमें विरासत में मिले है...हमारी संस्कृति हैं..हमारी जड़ें हैं। प्यार, सम्मान और विश्वास के साथ बोये गए वो बीज हैं जिनके फल हमारी आने वाली पुश्तें चखेंगी।
       वैज्ञानिक युग है भाई..हर कोई भावुक नहीं होता और आध्यात्म पर भी तर्क किये जाते हैं...तो ये सब बातें
मानने और न मानने वाले भी बहुत होंगें। पर इस बात पर तो सभी लोग सहमत होंगे कि जब कभी हमारी आंखों के सामने हमारे भाई-बहन के साथ खींचा गया बचपन का कोई फोटो आ जाता है तो हमारे चेहरों पर हमेशा मुस्हकुराहट होती है।
       शुरुआत की गुंजाइश हमेशा होती है। और ये मुस्कुराहट उसी गुंजाइश का सुबूत है..तो फिर क्यों न फिर से  उन तोहफ़ों की चमक बढ़ाई जाये..और अहसास कराया जाये कि वो कितने अनमोल हैं...जिन्हें हमने नहीं चुना..तोहफ़े हैं.. विरासत में मिले हैं।
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