शुक्रवार, 18 मार्च 2016

कत्ल

कत्ल का किस्सा बयां करती रही
सुर्ख   होठों   पे   लहू  की  पेरवी

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बुधवार, 9 मार्च 2016

कब से ये काँटों में हैं और ज़ख्म खाए हैं गुलाब?

कब से ये काँटों में हैं और ज़ख्म खाए हैं गुलाब?
अपने खूँ के लाल रंगों में नहाये हैं गुलाब।

फर्क इतना है हमारी और उसकी सोच में,
उसने थामी हैं बंदूकें, हम उठाये हैं गुलाब।

होश अब कैसे रहे, अब लड़खड़ाएँ क्यों न हम,
घोल कर उसने निगाहों में, पिलाये हैं गुलाब।

अब असर होता नहीं गर पाँव में काँटा चुभे,
ज़िन्दगी तूने हमें ऐसे चुभाये हैं गुलाब।

कुछ पसीने की महक, कुछ लाल मेरे खूँ का रंग,
तब कहीं जाकर ज़मीं ने ये उगाये हैं गुलाब।

खार होंगे, संग होंगे, और होगा क्या वहां?
इश्क की गलियों में सरवर किसने पाए हैं गुलाब