शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

तुम्हारे ख़त



कल रात कुछ काम से एक फ़ाइल फोल्डर खोला, मकसद तो था एक गुम हुआ रसीद ढूँढना...लेकिन खोलते ही तुम्हारे खतों पे नज़र चली गयी, जिसे मैंने  बड़ा ही संभाल के उसे रख दिया था,.कुछ तेरह खत होंगे तुम्हारे, जो किसी भी तरह से अभी तक पुराने नहीं हुए..न कहीं से फटे हैं..अब भी लगता है की जैसे कुछ देर पहले ही तुमने वो खत लिख मुझे थमाया था..तुम्हारे गर्माहट अब तक उन खतों में है.
याद है तुम्हे..हमने दो नोटबुक खरीदे थे. ये कह कर की उन नोटबुक के पन्नों में हम दोनों अपने दिल की बात लिखा करेंगे. एक नोटबुक मेरी और तुम्हारी और हमारी दिल की बात लिखी हुई मेरे पास  महफूज़ है. शायद तुमने भी एक नोटबुक अपने पास राखी होगी.
हम दोनों अक्सर नोटबुक में गाने और शायरियां लिखा करते थे. याद है तुमको एक बार तुमने प्लास्टिक पेपर पर कुछ लिख कर दिया था. हम दोनों अपने सब्जेक्ट के कुछ सवाल जवाब भी लिखा करते थे. कितना अच्छा था ये सब. तुम कहती थी इससे हमारी दिल की बात भी हो जाया करेगी और एग्जाम की थोड़ी बहुत तय्यारी भी हो जाएगी.
तुम्हारी चिट्ठियों और नोटबुक में मुझे अक्सर ये नज़र आता था की बचपना अभी तक तुममे कायम है..चिट्ठी में बहुत सी तुम ऐसी बातें लिख दिया करती थी जिसे पढ़ मैं बहुत हँसता था, और यकीन मानों मैं जब भी परेसान होता तो तुम्हारी उन चिठियों और नोटबुक को पढने लगता जिसमे तुम बहुत सी कुछ बाते 'इललॉजिकल' बातें भी लिखती...उन्हें पढ़कर मैं किसी भी मूड में रहूँ, हंसी खुद ब खुद चेहरे पर आ जाती थी...

वैसे तो मुझे पुराने दिनों में पहुचाने के काफी रास्ते हैं...लेकिन सबसे अच्छा और आसान रास्ता तुम्हारे खत और नोटबुक ही हैं, जिसे पढ़ते मुझे लगता है की मैं फिर से उन्ही दिनों में पहुँच गया हूँ जब मैं तुम्हारे साथ घूमता था..तुम्हारे करीब था..तुम्हारे पास था.उस समय मेरी क्या भावनाएं थी तुम्हारे प्रति ये तो नहीं पता लेकिन तुम्हारी मासूम सी हंसी दिल को अजीब सा सुकून देती थी..तुम हँसती थी, नौटंकियां करती थी,तो मुझे अच्छा लगता था..तब मैं खुश रहता था.अब तुम नहीं हो मेरे साथ..मेरे पास..लेकिन तुम्हारे ये खत अब भी मेरे पास हैं,जिसे मैंने एक अमानत के जैसे संभाल के रखा है.

मुझे ये सब बातें कल रात बैठे बैठे याद आ रही थी...मेरे टेबल पर फाइल वैसे ही पड़े हुए थे और मैं तुम्हारे साथ बिताये यादों की गलियों में टहल रहा था.मेरे पास एक डायरी थी,मैं चाह रहा था की डायरी में मैं उन सारी यादों की हर छोटी से छोटी बातें तफसील से लिख दूँ...लेकिन मैंने डायरी खोला नहीं.वो वैसे ही टेबल पर पड़ी मुझे ताकते रह गयी.कितनी ही बार तुम्हारी बातों को मैं लिखते हुए,मेरे आँखें गीली हुई हैं, धड़कने बढ़ जाती हैं और मेरा मुझपर कुछ भी कंट्रोल नहीं रहता है...पूरी रात मुझे नींद नहीं आई...तुम्हारे ख्यालों में लिपटा, अपने बिस्तर पर पडा रहा..

मुझे दिल से उसने पूजा
उसे जाँ से मैने चाहा
इसी हमराही मेँ आखिर
कहीँ आ गया दोराहा

फिर इक ऐसी शाम आई
कि वो शाम आखिरी थी
कोई जलजला सा आया
कोई बर्क सी गिरी थी

अजब आँधियाँ चली फिर
कि बिखर गए दिलो-जाँ
न कहीँ गुले-वफा था
न चरागे-अहदो-पैमाँ

अहमद फराज़

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