बुधवार, 1 जुलाई 2015

मां

'शख्सियत, ए 'लख्ते-जिगर, कहला न सका ।
"जन्नत,, के धनी "पैर,, कभी सहला न सका ।
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'दुध, पिलाया उसने छाती से 'निचोड़कर,
मैं 'निकम्मा, कभी 1 ग्लास पानी पिला न सका ।
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बुढापे का "सहारा,, हूँ 'अहसास, दिला न सका ।
पेट पर सुलाने वाली को 'मखमल, पर सुला न सका ।
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वो 'भूखी, सो गई 'बहू, के 'डर, से एकबार मांगकर,
मैं "सुकुन,, के 'दो, निवाले उसे खिला न सका ।
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नजरें उन 'बुढी, "आंखों,, से कभी मिला न सका ।
वो 'दर्द, सहती रही में खटिया पर तिलमिला न सका ।
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जो हर "रमज़ान,, 'ममता, के रंग पहनाती रही मुझे,
उसे "ईद,, पर दो 'जोड़, कपडे सिला न सका ।
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"बिमार,, बिस्तर से उसे 'शिफा, दिला न सका ।
'खर्च, के डर से उसे बडे़ 'अस्पताल, ले जा न सका ।
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"माँ" के बेटा कहकर 'दम, तौडने बाद से अब तक सोच रहा हूँ,
'दवाई, इतनी भी "महंगी,, न थी के मैं ला ना सका ।
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Rahishpithampuri786@gmail.com

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