सोमवार, 7 सितंबर 2015

कीजे

बे - घर है समंदर -ए- आंसू, सफ़र क्या कीजे !!
लौट आती है दुआएं बनकर जहर क्या कीजे !!
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तलाश-ए हक़ीम जारी है हाथों में दिल लिए हुए,
जख्मी जख्मी है मेरा खुन-ए जिगर क्या कीजे !!
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ठोकर-ए हुश्न मुझे महल से फुटपाथ तक ले आई,
वो अब भी नूरें नशीं है मोहतरम मगर क्या कीजे !!
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दर्द ज़बान पर उतार लूँ गर वो महफिल से निकल जाए,
उसे अल्फाज़-ए-कद्र नही कविता नज़र क्या कीजे !!
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दफना देना मेरी लाश उसको पता चलने से पहले,
वो मेरी आशिकी से बेखबर रही उसे खबर क्या कीजे !!
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Rahishpithampuri786@gmail.com

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