तुम्हारी याद के जेवर चुराने रोज़ आतें है |
हमारे ख्वाब में डाकू दिवानें रोज़ आतें है |
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हमें मजनू समझ कर मारते है गाँव के बच्चें,
हमारे जख्मों को पत्थर दिखाने रोज़ आतें है |
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करोड़ो आज भी शहरी यहाँ ग़ुरबत नहीँ भूलें,
शहर से गाँव में चादर चड़ाने रोज़ आतें है |
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हमें सब पीठ फिरतें ही कहेंगे सिरफिरा आशिक,
मगर इस सिरफिरे को मुंह लगाने रोज़ आतें है |
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अड़े है ज़िद पे तूफां भी फना कर दूँ चराग-ए-इश्क़,
मेरी हिम्मत की लौ को आजमाने रोज़ आतें है |
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