मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

रोज़ आतें है

तुम्हारी याद  के  जेवर  चुराने  रोज़ आतें  है |
हमारे  ख्वाब  में  डाकू  दिवानें  रोज़ आतें  है |

हमें मजनू  समझ  कर मारते है  गाँव के बच्चें,
हमारे जख्मों को पत्थर दिखाने रोज़ आतें है |

करोड़ो आज भी शहरी  यहाँ ग़ुरबत नहीँ भूलें,
शहर  से  गाँव  में चादर  चड़ाने रोज़ आतें है |

हमें सब पीठ फिरतें ही कहेंगे सिरफिरा आशिक,
मगर इस सिरफिरे को मुंह लगाने रोज़ आतें है |

अड़े है ज़िद पे तूफां भी फना कर दूँ चराग-ए-इश्क़,
मेरी हिम्मत की लौ को आजमाने रोज़ आतें है |

Previous Post
Next Post

About Author

0 comments: